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Indian Culture भारतीय संस्कृति

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मधुमक्खियाँ विश्व की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करतीं हैं। हमारे भोजन का एक तिहाई भाग मधुमक्खी द्वारा परागित फसलों से प्राप्त होता है। कुल 86% फूलों वाले पौधे व 75% खाद्य फसलें प्रजनन हेतु मधुमक्खियों व अन्य परागणकर्ता कीटों पर निर्भर हैं। बढ़ती जनसंख्या व भोजन की मांग ने मधुमक्खियों पर हमारी निर्भरता को और भी बढ़ा दिया है।

विश्व भर में इन मधुमक्खियों व परागण करने वाले कीटों की संख्या में भारी कमी दर्ज की गई है। इसका मुख्य कारण उनके प्राकृतिक वास का नुकसान, भूमि प्रयोग में बदलाव, नई व घातक हमलावर नस्लें, जलवायु परिवर्तन, रासायनिक कीटनाशकों का विषैलापन विशेषतः नियोंनिकोटिनाइड कीटनाशकों का प्रयोग। इन जहरीले कीटनाशकों के दुष्प्रभाव के कारण यूरोपीय यूनियन देशों में इन्हें प्रतिबंधित किया जा चुका है।

मधुमक्खियों द्वारा परागण से फसलों की न केवल उत्पादकता बल्कि गुणवत्ता में भी भारी वृद्धि होती है। प्राकृतिक कृषि में केवल अनाज वाली फसलें न लेकर सह फसली के रूप में दलहन, तिलहन, फल व सब्जियों को भी उगाया जाता है।

खेती की इस विधि में हानिकारक कीटों तथा रोगों की समस्या स्वतः कम रहती है और रासायनिक खादों व कीटनाशकों की आवश्यकता नहीं होती।

चौधरी व चांद (2017) ने मधुमक्खियों द्वारा परागण से भारतीय कृषि को होने वाले लाभ का वार्षिक आंकलन 1,12,615 करोड़ रुपए किया। तिलहनी फसलें मधुमक्खी परागण पर सर्वाधिक निर्भर करती हैं। सरसों में मधुमक्खी परागण की कीमत का आंकलन 19,355 करोड़ रुपए व सभी तिलहनों में 43,993 करोड़ रुपए है।

इसी प्रकार फलों में 17,095 करोड़, सब्जियों में 19,498 करोड़, रेशे वाली फसलों(कपास आदि) में 17,290 करोड़ व मसाले वाली फसलों में 10,109 करोड़ रुपए वार्षिक है। कृषि में रासायनों के अत्यधिक प्रयोग से होने वाले नुकसान का अनुमान आप स्वयं लगा सकते हैं।

प्राकृतिक कृषि में मधुमक्खियों के लिए अनुकूल वातावरण मिलने से वे अपना कार्य सहजता से कर पाती हैं। हम यहां शहद की बात नहीं कर रहे क्योंकि मधुमक्खी का मुख्य काम तो परागण है, मधु तो उप-उत्पाद है।

अतः प्राकृतिक कृषि में फसलों की उत्पादकता को मधुमक्खी पालन से और भी अधिक बढ़ाया जा सकता है जिससे कृषक की आय में बढ़ोत्तरी हो सकती है।


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भारत की संस्कृति बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास,...

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